रुठी जन्नत

ऐ जिंदगी

मयस्सर ना हुई कायनात
संघर्षों के बादल बरसे दिन रात
सपनों की क्यारियों में रोपे खूब गुलाब
उम्र की ढ़लान पर भी शूल बेहिसाब।

रुठ गई है जन्नत
अधूरी रही हर मन्नत
हारे हुए अल्फ़ाज़ों की फ़ौजें
प्राप्त नहीं जिंदगी में मौज़ें।

फ़जा-ए-गम की चादर
होता रहा हमेशा निरादर
आंगन से धूप ने ली विदाई
सुनहरे ख़्वाबों की रुसवाई।

सदीयों से उठती ऊंची फ़सीलें
ठोकती रही हृदय में कीलें
जख़्म बनते रहे रिसते नासूर
इसमें नारी का ही था कसूर।

ख़्वाबों-तस्वीर में
एक अक्स है उभारना
अबला नारी का मुगालता तोड़ना
मंजिलों की धारा का रुख है मोड़ना।

हौंसलों का श्ज़र कर खड़ा
कदमों को करना है अति बड़ा
अद्भुत क्षमता को कर धारण
मील के पत्थर रचो असाधारण।

✍️ ©® डा. सन्तोष चाहार ” जोया” 22/02/2019

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श्ज़र* पेड़
फ़सीलें* चारहदीवारी
मुगालता* भ्रम

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